शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

जो मेरा राम है वो ही तेरा खुदा

जो सरहद के उस पार है
सोचते जो हम यहाँ है
सोचते तो वो भी होंगे
कि
कभी हिन्द-पाक एक आँगन था
लाहौर, कराची, पेशावर
माँ भारती का तब दामन था
भारत संगठित था
एक परिवार था
हर त्यौहार सबका
सांझा त्यौहार था
जब रहीम की ईद पर
राम की बधाई थी
दीपावली पे दीपज्योति
नौशाद ने जलाई थी
अमृतसर से गुरबाणी
लाहौर से आज़ान
भाईचारे का बखान
करती थी हर ज़बान
दर्द सभी का एक था, जब
सबकी खुशियाँ एक जैसी थी
हम भी वो भी सोचते है
कि वो दुनिया कैसी थी
खा गयी किसकी नज़र
किसने लकीरें खींच दी
गंगाजल देती धरा
किसने लहू से सींच दी
थे वो शातिर लोग
जो अपनी सियासत के लिए
भारत को  खंडित कर दिया
छोटी रियासत के लिए
देश को बाँटा उन्होंने
मज़हबों के नाम पर
नापाक़ चाले चल गए
जब पाक अल्लाह राम पर
सैंकड़ों जाने गयी जब
घर हज़ारों लुट गए
भाई ही जब भाइयों को
क़त्ल करने जुट गए
भाईचारा मर गया
बहनों की अस्मत लूट गयी
जो थी हम सबकी  की सांझी
सारी दौलत लूट गयी
लाशों से भरकर रेलगाड़ी
भेजी गयी उपहार में
मासूम आहें दब गयी
मज़हबी चित्कार में
बन गयी सरहदें
बंट गया मेरा देश
आधा मेरा हुआ
आधा है तेरा देश
एक भाई से भाई 
जुदा हो गया
एक का राम हो गया 
एक का खुदा हो गया
क्या नहीं फिर से 
हम एक हो सकते है?
क्या नहीं दाग 
दामन के धो सकते है?
घर अलग है तो क्या, 
कोई दिक्कत नही
हो के बेखौफ क्या 
दोनों सो सकते है?
खत्म सरहद करें 
एक आंगन करें
फिर से आबाद हम 
वो ही गुलशन करें
कह दे अलविदा 
इन अंधेरों को हम
फिर शमां हम 
मुहब्बत की रौशन करें
तब भी हम एक थे 
अब हो क्यों हम ज़ुदा
जो मेरा राम है 
वो ही तेरा खुदा

लेखक (कवि),
मुकेश कमल
09781099423








कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें