हर रोज बुलंदी पे हैं चढ़ता रहा शहर
गावों को ख़तम कर गया बढ़ता रहा शहर,
जंगल ज़मीन जल पहाड़ों की चौटियों पे
बेरोक टोक देखिए चढ़ता रहा शहर,
प्रदूषण का ज़हर शहर पे कहर ढा रहा
विकास के कसीदे पर पढ़ता रहा शहर,
ऊँची ऊँची बिल्डिंगे शीशे की कोठियाँ
पत्थर पे भविष्य को हैं गढ़ता रहा शहर,
मज़दूर जिसने इसको पसीने से हैं सींचा
हैं उसकी झोपड़ी पे बिगड़ता रहा शहर,
फैशन की हवा पीढ़ियों को आगे ले गयीं
संस्कार संस्कृति में पिछड़ता रहा शहर,
रोज़ीरोटी के लिए 'कमल' जो भी यहा आया
उसको ही मोहपाश में जकड़ता रहा शहर.
लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423
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