सच
कौड़ियों में झूठ का है रेट बड़ा हाई,
झूठ के
बाज़ार में सच की कदर कहाँ है.
जज झूठा
वकील झूठे, झूठे गवाह सारे,
अन्याय के इस राक्षस से
न्याय डर रहा है.
झूठा तो खा रहा है मुर्गा
तंदूरी यारों,
सच्चा तो बस पानी से ही
पेट भर रहा है.
मज़लूम की चीखें दबी है झूठ
के इस शोर में,
है फिक़्र किसको कोई बेमौत
मर रहा है.
इंसान से रहती है, इंसानियत आशा,
सबको पता है पहले वो जानवर
रहा है.
अफ्सोस ‘कमल’ सच पे
कोई करता नही यकीं,
झूठ पे बंद आंख कर विश्वास
कर रहा है.
लेखक (कवि),
मुकेश ‘कमल’
09781099423
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