शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

कहीं छल जाए केजरी


आम आम करते हैं, देखिए मगर आप
आम को अभी तलक पका ना पाए केजरी,

वादे तो वादे हैं वादों का क्या कीजिए भला
वादा नहीं एक भी, हैं निभाएँ केजरी,

जनता ने तो दिया था समर्थन अपार पर
जनता को ही पीठ काहे दिखलाएँ केजरी,

दिल्ली में जो मिली कुर्सी तुम्हे सी.एम की
उसको निठल्ली पीछे, छोड़ आए केजरी,

गोवा, पंजाब कभी, पी एम के ख़्वाब देखे 
दिल्ली वाले बेचारों को, भरमाये केजरी 

तुक्का एक बार, लगता हैं बार बार नहीं
बात कौन तुमको ये, समझाएँ केजरी,

छले तो गये हैं, दिलवाले मेरी दिल्ली के जी 
'कमल'  देश को ना कहीं छल जाए केजरी.

लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423


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