शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

मन की बात कर गया


जुमले नहीं थे, थाली में कुछ दाने भले थे
ना पंद्रह लाख जेब में, चार आने भले थे,
अच्छे दिनों का ख्वाब, जो दिखलाएं वो टूटा
इन अच्छे दिनों से तो, दिन पुराने भले थे।

खाली कटोरा कर गया, सब चाट कर गया
जनता की जेब साहेब, काट कर गया,
सुनी ना बात प्रजा की, ना कोई ख़बर ली
आकर के रेडियो पे, मन की बात कर गया।

सुरमा बता के बेचते रेता ना चलेगा
भाषण सिर्फ स्टेज़ पे देता ना चलेगा,
परिभाषा सियासत की बदल डाली आपने
बिना गारंटी वाला अब नेता ना चलेगा।

नियत में अब ज़रा भी जिसके खोट मिलेगी
लुभावने वादों पे ना सपोर्ट मिलेगी,
जुल्म का जवाब जनता देगी तानाशाह
चोट तुझे आपको सब वोट मिलेगी।
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कवि - मुकेश कमल 
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पल्ला झाड़ डाला है


जो ना हो सका अब तक
अब ना होने वाला है,
इतना कहके उस शख़्स ने
पल्ला झाड़ डाला है।

घुटने टेक देता है
आगे जो हालातों के,
उसके लिए इक टीला
जैसे इक हिमाला है।

मजहबों के झगड़े में
क्या है खोया क्या पाया,
कहीं टूटी मस्ज़िद है
कहीं पे शिवाला है।

खुशियां लानी पड़ती है
खरीद के बाजारों से,
किसी की दीवाली है
किसी का दीवाला है।

रोशनी ना दे शायद
मंजिल बताता है,
वो दीये की लौ का जो
मद्धम उजाला है।

हुकुमरानी तेरी भी
कुछ दिनों की मेहमा है,
वो भरम भी टूटेगा
जिस भरम को पाला है।

कैसे इस हुक़ूमत से
पूछेगा सवाल कोई,
कलम पे शिकंजा है
ओर जुबां पे ताला है।
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कवि - मुकेश कमल
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पहचान कौन है

कहते है बदल देंगे - संविधान कौन है,
नफ़रत की खोले बैठे है - दुकान कौन है।

सच बोलना हाकिम को गंवारा नहीं यहां,
खामोश है आवाम - बेजुबान कौन है।

क्यों मसला जा रहा है - कलियों, फूलों को बेवजह,
तितली तेरे गुलशन का बागबान कौन है।

हरे और भगवे रंग में देश को ये बांटने वाले,
तू इनके खूनी मंसूबे - पहचान कौन है।

किसी भी हाल में तुझको कभी मायूस ना देखा,
तेरे होठों से 'कमल' ले गया मुस्कान कौन है।
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कवि - मुकेश कमल 
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खो चुका हूं मैं

सफ़र के खत्म होने तक-क्या क्या खो चुका हूं मैं, 
मंजिल पा चुका हूं - और रास्ता खो चुका हूं मैं।

इस मकाम की खातिर बहुत कुछ पीछे छूटा है,
ये जिसके वास्ते देखा था सपना खो चुका हूं मैं।

मेरे मां बाप थे जब तक मेरा घर एक मन्दिर था,
वो मंदिर है मगर सुनसान - देवता खो चुका हूं मैं।

इलाका पॉश पर अफ़सोस कि खामोश है गलियां,
यहां विरान बस्ती में सब अपना खो चुका हूं मैं।

पिंजरे में परिंदा - अब ये पश्चाताप करता है,
कुछ दानों के लालच में - घोंसला खो चुका हूं मैं।

'कमल' थक तो गया हूं - पर अभी हारा नहीं हूं,
ये वहम है तुम्हारा कि - हौसला खो चुका हूं मैं। 

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कवि - मुकेश कमल 
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फैसला

चांद तारों जुगनू की झिल मिल ना पायेंगे 
हमारे बाद कोई रौनक-ए-महफ़िल ना पायेंगे।

गम-ए-जुदाई से शायद वाकिफ नहीं हो तुम
हम बिछड़ेंगे ऐसे-ऐसे की फिर मिल ना पायेंगे।

फ़ैसला जो भी करना है करना सोच समझकर 
ये रास्ता गर बदलते हैं कभी मंजिल ना पायेंगे।

कुछ इस तरह से उजड़ा है मेरा गुलशन कि मैं 
लहूं से सींचू तो भी गुल यहां अब खिल ना पायेंगे।

महफ़िल में मुझको रूसवां करके जा रहे है जो
कुछ भी करले मुझको कर हासिल ना पायेंगे।

'कमल' मैं कब्र में भी एक सुकूं के साथ सोया हूं 
जब तक जिंदा है पर चैन वो कातिल ना पायेंगे।
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कवि - मुकेश कमल 
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मेरा वजूद



ये आंसू बनके मेरा इश्क़ जो आंखों से निकला है
सज़ा याफ़्ता कैदी - ज्यों सलाखों से निकला है।

तुम्हारे फूल से पावों को - मुबारक हो सेज ये
नंगे पांव वो पगला अभी - कांटों से निकला है।

उन्हीं के दम से थी रंगत ये खुशबू और ये शोखी
कली से फूल बनके तू जिन शाखों से निकला है।

बहाकर ले गया है जो - गरीबों के ठिकानों को
वो पानी आसमां के महीन, सुराखों से निकला है।

'कमल' है शुक्रिया उनका कि तनके चल रहा हूं मैं 
मेरा वजूद जिन लोगों के - तानों से निकला है।

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कवि - मुकेश कमल 
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गठबंधन ही हैं व्यर्थ


औचित्य क्या विवाह का फेरो का नहीं अर्थ
दो दिल ना मिले तो ये गठबंधन ही है व्यर्थ

पंडित का मंत्रोचारणदेवो का आह्वान
शुभ मुहूरत , टीपना, पंडित, ज्योतिषी हैं व्यर्थ

सात वचन भरना अग्नि के बैठ सम्मुख
फूँक देना आग में सामग्री घी हैं व्यर्थ

खुद की पैदा, पाली पोसी, खुद विदा करी
पराया धन अब कह रहें हैं धी हैं व्यर्थ

पैर छूना पति के कारवाँ चौथ वाले दिन
एक बार साल में ये नौटंकी हैं व्यर्थ

पैसे से ही पति की औकात आँकना
पैसा ना रहें पास में तो पति हैं व्यर्थ

बीवी के चक्कर में सब को भुला देना
प्यार मुहब्बत की इतनी अति हैं व्यर्थ

अकल पे जिनकी 'कमल' पर्दा पड़ा हुआ हो
बात अकल की हर एक उनसे करी हैं व्यर्थ

लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423