गली के मोड़ पे इक मकान जल रहा है
इंसानियत के साथ में ईमान जल रहा है।
है किसकी वज़ह से बना ये जंग का आलम
हर शख्स हक़ीकत से अंज़ान जल रहा है।
किसी को नहीं पता के, साज़िश है ये किसकी
कहीं राम जल रहा है कहीं रहमान जल रहा है।
लाशों की भूख है, इन्हें है प्यास खून की
अन्न दाता देश का, किसान जल रहा है।
आदमी की खो गयी गैरत हुई हैरत मुझे
हिंदू जल रहा है कहीं मुसलमान जल रहा है।
मज़हबों के शोर में मानवता गूंगी हो गयी
क़ुरान, गीता, बाइबल का फरमान जल रहा है।
टायर गले में डाल के ज़िंदा जला रहे जिसे
‘कमल’ वो किसी माँ का अरमान जल रहा है।
लेखक(कवि),
मुकेश ‘कमल’
7986308414
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