सोमवार, 24 नवंबर 2025

मज़हबों के शोर में

गली के मोड़ पे इक मकान जल रहा है
इंसानियत के साथ में ईमान जल रहा है।

है किसकी वज़ह से बना ये जंग का आलम
हर शख्स हक़ीकत से अंज़ान जल रहा है।

किसी को नहीं पता के, साज़िश है ये किसकी
कहीं राम जल रहा है कहीं रहमान जल रहा है।

लाशों की भूख है, इन्हें है प्यास खून की 
अन्न दाता देश का, किसान जल रहा है।

आदमी की खो गयी गैरत हुई हैरत मुझे
हिंदू जल रहा है कहीं मुसलमान जल रहा है।

मज़हबों के शोर में मानवता गूंगी हो गयी
क़ुरान, गीता, बाइबल का फरमान जल रहा है।

टायर गले में डाल के ज़िंदा जला रहे जिसे
 ‘कमल’ वो किसी माँ का अरमान जल रहा है।

लेखक(कवि),
मुकेश ‘कमल’
7986308414

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें