ज़ख़्म दिल के छुपायें भी जाते नहीं
ये सभी को दिखायें भी जाते नहीं
आंखों के दरियां में अश्कों के पानी से
आतिशें-ग़म बुझायें भी जाते नहीं
मैंने सोचा जलाकर उन्हें राख कर दूँ
तेरी यादों के सब निशां खाक़ कर दूँ
उनकों देखा तेरा, उसमें चेहरा दिखा
मुझसे ख़त वो जलायें भी जाते नहीं
ज़ख़्म दिल के.............................
क्या से क्या हो गया मैं नहीं जानता
मुझसे आख़िर हुई थी क्या ऐसी ख़ता
कैसे तुझसे ज़ुदा हो के ज़िंदा हूँ मैं
ग़म ये कहके बताये भी जाते नहीं
ज़ख़्म दिल के.............................
प्यार के आशियां पे गिरी बिजलियां
छुआ शबनम को, जल गयी उंगलियां
ज़िंदगी एक पहेली के जैसी लगे
रिश्तें है पर निभायें भी जाते नहीं
ज़ख़्म दिल के.............................
ना ग़ुलशन रहा, ना कली, ना वो फूल
अब है वीराना वो वहाँ उड़ती है धूल
‘कमल’ रौंदे हुऐ फूल पैरों तले
ज़ुल्फ़ों में सजायें भी जाते नहीं
ज़ख़्म दिल के.............................
लेखक(कवि),
मुकेश ‘कमल’
7986308414
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