ज़ख्म खा खा कर दुआ देना
सीख लिया हमनें भी दर्द छुपा लेना
जिसके लिये ज़हान में कोई जगह नहीं
आता है हमें उसको सीने से लगा लेना
काम निकल जाये है फिर कौन किसी का
पड़ जाये ज़रुरत तो नमश्कार बुला लेना
शहर की गलियां अब बीमारी का घर है
जा के किसी पहाड़ पे ताज़ा हवा लेना
दुनियां की भागम-भाग से जो वक़्त मिल जाये
कुछ देर अपने आप से खुद को मिला लेना
लोगों के सामने रोने से क्या होगा
कहीं बैठ अकेले में ही आंसू बहा लेना
नफ़रत की दुकानों में है प्यार कहाँ ‘कमल’
इन सौदागरों के पास से अच्छा है विदा लेना
लेखक(कवि),
मुकेश ‘कमल’
7986308414
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें