शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

खो चुका हूं मैं

सफ़र के खत्म होने तक-क्या क्या खो चुका हूं मैं, 
मंजिल पा चुका हूं - और रास्ता खो चुका हूं मैं।

इस मकाम की खातिर बहुत कुछ पीछे छूटा है,
ये जिसके वास्ते देखा था सपना खो चुका हूं मैं।

मेरे मां बाप थे जब तक मेरा घर एक मन्दिर था,
वो मंदिर है मगर सुनसान - देवता खो चुका हूं मैं।

इलाका पॉश पर अफ़सोस कि खामोश है गलियां,
यहां विरान बस्ती में सब अपना खो चुका हूं मैं।

पिंजरे में परिंदा - अब ये पश्चाताप करता है,
कुछ दानों के लालच में - घोंसला खो चुका हूं मैं।

'कमल' थक तो गया हूं - पर अभी हारा नहीं हूं,
ये वहम है तुम्हारा कि - हौसला खो चुका हूं मैं। 

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कवि - मुकेश कमल 
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