शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

धर्मपति

मैं श्याम वर्ण वो श्वेत परी
मैं कवि हृदय वो हृदयेश्वरी 
मैं सुस्त राम वो चुस्त वती
वो धर्मपत्नी मैं धर्मपति।

वो है गुलाब मैं कांटा हूं 
वो मिस यू डियर मैं टाटा हूं 
वो पंखुड़ियों के जैसा स्पर्श 
मैं थानेदार का चांटा हूं 
वो न्यू ब्रांडेड ए सी है 
मैं खड़का हुआ फर्राटा हूं
वो है हिरणी सी इठलाती 
मेरा चलना कछुए की गति 
वो धर्मपत्नि मैं धर्मपति।

वो अमीर बाप की बेटी है
मैं एक गरीब का बेटा हूं
वो काजू कतली बर्फी है
मैं आगरे वाला पेठा हूं
वो फिट है बबीता जी जैसे 
मैं गोल मोल सा जेठा हूं 
मैं हूं यमदूत के दूत सा
वो रंभा मेनका और रति 
वो धर्मपत्नि मैं धर्मपति।

वो न्यू फैशन की आदि है 
यहां अपने तन पर खादी है
वो जींस टॉप ले स्लीवलेस 
अपनी पतलून भी सादी है 
वो हाई हील के सैंडिल में 
ज्यों छह फीट की शहजादी है 
मैं हूं प्रतीक पिछड़ेपन का 
वो है पश्चिम की उन्नति 
वो धर्मपत्नि मैं धर्मपति।

मेरा नाई पेड़ के नीचे है 
वो बड़े सैलून को जाती है
वहां 2000 की हेयर सपा 
यहां 10 में चंपी हो जाती है
मेरा आधा चांद शर्माता है 
जब वो जुल्फें लहराती है 
कभी हुस्न मैं उसका देखूं 
कभी देखूं अपनी जेब कटी
वो धर्मपत्नि मैं धर्मपति।

है कितने अन्तर पर यारों 
हम दो पंछी एक डाली के
मेरी जान फूल जिस बगिया की
सदके जाऊं उस माली के 
हंस के मैं सारे नाज़ उठाऊं 
इस नाज़ों से पाली के
जिससे महका मेरा घर आंगन 
ये है "कमल" वो पुष्पवती 
वो धर्मपत्नि मैं धर्मपति।

(मुकेश कमल)
9781099423
 



चुनावों की डेट

जनता का अचानक से ही बढ़ा रेट है, 
नज़दीक चुनावों की, आ गई डेट है।

चुनावी मैदान बना जंग का मैदान 
आ गये मैदान में, नये नये शैतान 
कुछ मरियल लड़ाके कुछ हैवीवेट है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

गुंडे ओर बदमाश सभी भर रहे पर्चा 
ओवर बजट देखो सभी कर रहे खर्चा
मैनिफेस्टो पर सभी का डुप्लीकेट है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

बस्तियों में गांजा दारू बंट रही है यार
बेवड़ों की ज़िंदगी में आ गई बहार
रोटी को वांदे मीट से भर रहे पेट है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

रिजर्वेशन पॉलिटिक्स भी चरम पे है 
लेडीज बेचारी थर्टी थ्री वाले भरम पे है
दलितों को पिछड़ों फुसला रहे सेठ है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

झूठे वादों के महल बनाये जा रहे 
अंधों को सब्ज़ बाग है दिखाये जा रहे 
जनता का वोट पार्टियों का टारगेट है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

मंडप सजा हुआ है स्वयंवर इसे कहे
दुल्हन है जनता और नेता दूल्हा बन रहे 
जीतते ही पति क्या देवर क्या जेठ है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

जो भी जीता जीत के कुर्सी पे विराजा 
उसने "कमल" करना है स्कैंडल तरोताजा 
करना भ्रष्टाचारी ने सब मटियामेट है,
नज़दीक चुनावों की आ गई डेट है।

(मुकेश कमल)
9781099423

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

अच्छे दिन के सपने


वो अच्छे दिन के दिखा के सपने
दस साल उल्लू बना गया है।
दिन बद से बद्तर हमारे करके
एक मौका मांगने फिर आ गया है।

ना पंद्रह आए किसी के खाते
बस खाली जेबें फिरो हिलाते
वो बैंको का भी सारा पैसा
यारों पे अपने लूटा रहा है।
वो अच्छे दिन के............

कुछ नोटबंदी ने कमर तोड़ी
खर्च ना पाए जो रकम जोड़ी
ना धेला पल्ले ना पल्ले कोड़ी
जनता का जनधन कहां गया है।
वो अच्छे दिन के.................

है जनता पूछे बताओ साहेब
पीएम केयर फंड दिखाओ साहेब
साहेब दिखाकर हमें बत्तीसी
हर बात जुमला बता गया है।
वो अच्छे दिन के...............

करे कहां है वो जन की बातें
सुनाये अपने ही मन की बातें
है खत्म सारी वतन की बातें
धर्म में ऐसे उलझा गया है।
वो अच्छे दिन के............

कैमरा फ्रेम में फिट है साहेब
ड्रामे बाजी में हिट है साहेब
बदले रंग गिरगिट है साहेब
चल नया पैंतरा गया गया है
वो अच्छे दिन के..............

चुनावी बॉन्ड का खेल देखो
इन्ही के खाते मनी ट्रेल देखो
विपक्ष को डाला है जेल देखो
हथकंडे सारे आजमा गया है।
वो अच्छे दिन के................
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कवि - मुकेश कमल 
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अकेला मैं


बियाबान जंगल घनेरे में अकेला मैं
दूर तक फैले - अंधेरे में अकेला मैं 

गमों, रुसवाइयों, दुश्वारियों, का जमघट
घेरे खड़ा हुआ है, घेरे में अकेला मैं

सात वचनों में तुम्हारी, भी तो हामी थी
साथ थी तुम या, सात फेरे में अकेला मैं

अपनों में अपनेपन की, तलाश ख़त्म कर
ख़ुद को तलाशता हूं, मेरे में अकेला मैं

कोई सूफ़ी किसी मुर्शद का दीवाना रहा होगा
अब हूं 'कमल' उसके डेरे में अकेला मैं 
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कवि - मुकेश कमल 
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दरवाज़ा


पीठ घुमाए खड़ी है खिड़की बेवफ़ा, दरवाजों से,
छत से रूठी दीवारें है, फर्श खफ़ा दरवाजों से। 

दीवारों पर तस्वीरें है, तस्वीरों पर हार चढ़े,
एक एक करके कई पीढ़ियां हुई दफा दरवाजों से।

कर्ज़ चुका ना पाया, वो खा सल्फास मरा,
साहुकार करें पूरा, नुकसान नफा दरवाजों से।

निर्मोही एक बार -  पलट कर देख तो ले,
नम आंखों से कोई तुझको है तकता दरवाजों से

कई मर्तबा इस कूंचे से होकर के मायूस 'कमल'
दस्तक देकर खाली लौटा, कई दफा दरवाजों से।
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कवि - मुकेश कमल
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मन की बात कर गया


जुमले नहीं थे, थाली में कुछ दाने भले थे
ना पंद्रह लाख जेब में, चार आने भले थे,
अच्छे दिनों का ख्वाब, जो दिखलाएं वो टूटा
इन अच्छे दिनों से तो, दिन पुराने भले थे।

खाली कटोरा कर गया, सब चाट कर गया
जनता की जेब साहेब, काट कर गया,
सुनी ना बात प्रजा की, ना कोई ख़बर ली
आकर के रेडियो पे, मन की बात कर गया।

सुरमा बता के बेचते रेता ना चलेगा
भाषण सिर्फ स्टेज़ पे देता ना चलेगा,
परिभाषा सियासत की बदल डाली आपने
बिना गारंटी वाला अब नेता ना चलेगा।

नियत में अब ज़रा भी जिसके खोट मिलेगी
लुभावने वादों पे ना सपोर्ट मिलेगी,
जुल्म का जवाब जनता देगी तानाशाह
चोट तुझे आपको सब वोट मिलेगी।
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कवि - मुकेश कमल 
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पल्ला झाड़ डाला है


जो ना हो सका अब तक
अब ना होने वाला है,
इतना कहके उस शख़्स ने
पल्ला झाड़ डाला है।

घुटने टेक देता है
आगे जो हालातों के,
उसके लिए इक टीला
जैसे इक हिमाला है।

मजहबों के झगड़े में
क्या है खोया क्या पाया,
कहीं टूटी मस्ज़िद है
कहीं पे शिवाला है।

खुशियां लानी पड़ती है
खरीद के बाजारों से,
किसी की दीवाली है
किसी का दीवाला है।

रोशनी ना दे शायद
मंजिल बताता है,
वो दीये की लौ का जो
मद्धम उजाला है।

हुकुमरानी तेरी भी
कुछ दिनों की मेहमा है,
वो भरम भी टूटेगा
जिस भरम को पाला है।

कैसे इस हुक़ूमत से
पूछेगा सवाल कोई,
कलम पे शिकंजा है
ओर जुबां पे ताला है।
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कवि - मुकेश कमल
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