आदमी रुक जाते हैं ज़िंदगी रुकती कहाँ
आँधियों तूफ़ानो में भी ये शमा बुझती कहाँ
शाखें टूटी दरखतों से फिर करों कुछ भी जतन
जैसे टूटा दिल जुड़े ना वैसे ये जुड़ती कहाँ
जो सड़क मेरे शहर से जाती थी तेरे शहर तक
सड़क अब भी हैं वहीं लेकिन तेरी बस्ती कहाँ
कहने वाले तो यहाँ हैं कहते जाते बेझिजक
उनको क्या मालूम के ये बात हैं चुभती कहाँ
मौत हैं सय्याद वो- जाल जिसके पास हैं
चिड़िया जो इसमे फँसी - फिर कहीं उड़ती कहाँ
साथ जीने मरने की जो कस्में खाते थे 'कमल'
अब मुझे तू ही बता - वो तेरे साथी कहाँ
लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423
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