सोमवार, 2 जनवरी 2017

कुर्सी

ना जाने क्यों वो बार-बार बदलती है 
कुर्सी वही रहती है सरकार बदलती है

नेता की है पत्नि जो नख़रे दिखाती है 
हफ़्ते में जाने कितनी वो कार बदलती है 

सीखा है  रंग बदलना, गिरगिट से  इसने यारों 
ये राजनीति  भी रंग हज़ार बदलती है 

आज है इसकी कल उसकी हो जाये 
वेश्या की तरह कुर्सी नित यार बदलती है 

जान है ना-जाने ये कब निकल जाये 
ये तो किरायेदार है घर-बार बदलती है

सागर में ज़िन्दगी के 'कमल' खेते रहो नैया 
देखते जाओ ये कितने पतवार बदलती है  

लेख़क 'कवि '
मुकेश 'कमल'
09781099423 

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