शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

आधा घरवाला

ससुराल में बीवी का भाई जो साला होता 
साली की तरह वो भी आधा घरवाला होता 

होता प्यारा वो भी बड़ा हो चाहे छोटा 
कई बार लाखों  का होता है ये सिक्का खोटा 

जब-जब साला आता अपनी बहन से मिलने 
देखके उसका सूटकेस मन लगता खिलने 

खाली हाथ कभी ना बहन के घर को जाता 
कपड़े-लत्ते,  फ्रूट-मिठाई लेकर आता

रक्षाबंधन भाईदूज पर उसके जाओ 
टीका कर राखी बाँधों, बाँध के गठरी लाओ 

साला हो चाहे गोरा हो या हो काला 
साला आये जीजा के घर करे उजाला

साले के  घर जब पहुंचे हम सजनी-सैंया 
हमको भूली सजनी करती भैया-भैया 

लेख़क (कवि ),
मुकेश 'कमल'
09781099423 

लिपस्टिक

पुराने क्रोधी 
फैशनपरस्ती के विरोधी 
संस्कारों के पक्षधरों की 
पुरातन खंडहरो की 
यानि 
बुज़ुर्गों की सभा चल रही थी 
उनकी जुबान आधुनिकता पर 
आग उगल रही थी 
इसी बीच 
एक बूढ़े ने गर्म तेल सा खौलते हुए 
मेकअप के ख़िलाफ़ बोलते हुए 
कहा
महिलायें, जो लिपस्टिक लगाती है 
ये लिपस्टिक मुझे जरा नहीं भाती है 
औरतें लिपस्टिक पर करती है 
कितना पैसा बरबाद 
भाई मुझे तो इसका ना रंग पसंद है 
ना ही इसका स्वाद 

लेखक (कवि ),
मुकेश 'कमल'
09781099423 

मेरे चाँद मेरा यक़ीन तो कर

जलने लगा है चाँद हुस्नो-शबाब से
देखा करो ना आईना कहदो ज़नाब से

है  ख़ुद गुलाब  जानम ये सुर्ख़ होंठ तेरे
इनको क्यों रंग डाला है तुमने गुलाब से

जिस तरफ पड़ी  मदहोश सी  नज़र तेरी
वहीँ ज़ाम लग गए है छलकने शराब से

ऐ मेरे चाँद तू मेरा यक़ीन  तो कर
जलवा नहीं है कमतर तेरा आफ़ताब से 

 एहसान होगा तेरा ये  'कमल' पे बड़ा
चेहरा निकालो तुम जरा ज़ालिम नक़ाब से  

लेख़क (कवि ),

मुकेश 'कमल'
09781099423  

जो मेरा राम है वो ही तेरा खुदा

जो सरहद के उस पार है
सोचते जो हम यहाँ है
सोचते तो वो भी होंगे
कि
कभी हिन्द-पाक एक आँगन था
लाहौर, कराची, पेशावर
माँ भारती का तब दामन था
भारत संगठित था
एक परिवार था
हर त्यौहार सबका
सांझा त्यौहार था
जब रहीम की ईद पर
राम की बधाई थी
दीपावली पे दीपज्योति
नौशाद ने जलाई थी
अमृतसर से गुरबाणी
लाहौर से आज़ान
भाईचारे का बखान
करती थी हर ज़बान
दर्द सभी का एक था, जब
सबकी खुशियाँ एक जैसी थी
हम भी वो भी सोचते है
कि वो दुनिया कैसी थी
खा गयी किसकी नज़र
किसने लकीरें खींच दी
गंगाजल देती धरा
किसने लहू से सींच दी
थे वो शातिर लोग
जो अपनी सियासत के लिए
भारत को  खंडित कर दिया
छोटी रियासत के लिए
देश को बाँटा उन्होंने
मज़हबों के नाम पर
नापाक़ चाले चल गए
जब पाक अल्लाह राम पर
सैंकड़ों जाने गयी जब
घर हज़ारों लुट गए
भाई ही जब भाइयों को
क़त्ल करने जुट गए
भाईचारा मर गया
बहनों की अस्मत लूट गयी
जो थी हम सबकी  की सांझी
सारी दौलत लूट गयी
लाशों से भरकर रेलगाड़ी
भेजी गयी उपहार में
मासूम आहें दब गयी
मज़हबी चित्कार में
बन गयी सरहदें
बंट गया मेरा देश
आधा मेरा हुआ
आधा है तेरा देश
एक भाई से भाई 
जुदा हो गया
एक का राम हो गया 
एक का खुदा हो गया
क्या नहीं फिर से 
हम एक हो सकते है?
क्या नहीं दाग 
दामन के धो सकते है?
घर अलग है तो क्या, 
कोई दिक्कत नही
हो के बेखौफ क्या 
दोनों सो सकते है?
खत्म सरहद करें 
एक आंगन करें
फिर से आबाद हम 
वो ही गुलशन करें
कह दे अलविदा 
इन अंधेरों को हम
फिर शमां हम 
मुहब्बत की रौशन करें
तब भी हम एक थे 
अब हो क्यों हम ज़ुदा
जो मेरा राम है 
वो ही तेरा खुदा

लेखक (कवि),
मुकेश कमल
09781099423








बुधवार, 28 दिसंबर 2016

हो चुकी हैं इंतेहाँ

लक्ष्य सम्मुख हैं बहुत पर एक तुझको चुनना होगा
अपना आशियाँ ऐ बंदे खुद तुझे ही बुनना होगा

हर एक खींचेगा, अपनी ही, और तुझको प्यारे
करना तू अपने मन की, कहना सभी का सुनना होगा

काया बनानी हैं तुझे गर कुंदन के जैसे अपनी भी
कुंदन के जैसे ही तुझे अग्नि में जलना भुनना होगा

हाथ पर धर हाथ यधपि, तुम यूँ ही बैठे रहोगे
यूँ ही बैठे रहने से तो काम कोई कुछना होगा

ये ज़माना जीने देता, हैं किसे कब चैन से
तूँ ना जब तक बोलेगा तक जमाना चुपना होगा

जब जला लेगा दिया तू हौंसले का अपने मन में
तेरी इस पावन शमां से क्योंकर अंधेरा कम ना होगा

ज़ुल्म का जो सिलसिला अब तक चला आता रहा
हो चुकी हैं इंतेहाँ उसको 'कमल' अब थमना होगा

लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
097810099423 

गिरगिट भी शर्मिंदा हैं

सिर पर टोपी गले में मफ्लर डालके खाँसीवाल
खासम खासों को पहना दी आम आदमी खाल

गुरु गुरु कह अन्ना जी को ऐसा खेला खेल
गायब अन्ना जी हैं, अब हैं चेले गुरु घंटाल

करना ना धरना कुछ हैं केवल धरना करना हैं
धरना कर करके हैं गलानी राजनीति में दाल

प्रेस वार्ता नित करना और करना नये खुलासे
बिना साक्ष्य कहे हर नेता अंबानी का दलाल

खाकर कसमें बच्चों की जो बदल जाए इंसान
गिरगिट भी शर्मिंदा हैं वाह वाह तेरे रंग कमाल

महँगाई ग़रीबी अनपढ़ता भुखमरी बेरोज़गारी मुद्दा
नहीं हैं केवल एक ही रट जय जय जनलोकपाल

कहे  'कमल'  अब सुनो, महोदय जी शर्म करो
जनता की तुम भावनाओ से मत खेलो फुटबॉल
                                                    
लेखक (कवि), 
मुकेश 'कमल'
09781099423

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

कहीं छल जाए केजरी


आम आम करते हैं, देखिए मगर आप
आम को अभी तलक पका ना पाए केजरी,

वादे तो वादे हैं वादों का क्या कीजिए भला
वादा नहीं एक भी, हैं निभाएँ केजरी,

जनता ने तो दिया था समर्थन अपार पर
जनता को ही पीठ काहे दिखलाएँ केजरी,

दिल्ली में जो मिली कुर्सी तुम्हे सी.एम की
उसको निठल्ली पीछे, छोड़ आए केजरी,

गोवा, पंजाब कभी, पी एम के ख़्वाब देखे 
दिल्ली वाले बेचारों को, भरमाये केजरी 

तुक्का एक बार, लगता हैं बार बार नहीं
बात कौन तुमको ये, समझाएँ केजरी,

छले तो गये हैं, दिलवाले मेरी दिल्ली के जी 
'कमल'  देश को ना कहीं छल जाए केजरी.

लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423