शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

अकेला मैं


बियाबान जंगल घनेरे में अकेला मैं
दूर तक फैले - अंधेरे में अकेला मैं 

गमों, रुसवाइयों, दुश्वारियों, का जमघट
घेरे खड़ा हुआ है, घेरे में अकेला मैं

सात वचनों में तुम्हारी, भी तो हामी थी
साथ थी तुम या, सात फेरे में अकेला मैं

अपनों में अपनेपन की, तलाश ख़त्म कर
ख़ुद को तलाशता हूं, मेरे में अकेला मैं

कोई सूफ़ी किसी मुर्शद का दीवाना रहा होगा
अब हूं 'कमल' उसके डेरे में अकेला मैं 
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कवि - मुकेश कमल 
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दरवाज़ा


पीठ घुमाए खड़ी है खिड़की बेवफ़ा, दरवाजों से,
छत से रूठी दीवारें है, फर्श खफ़ा दरवाजों से। 

दीवारों पर तस्वीरें है, तस्वीरों पर हार चढ़े,
एक एक करके कई पीढ़ियां हुई दफा दरवाजों से।

कर्ज़ चुका ना पाया, वो खा सल्फास मरा,
साहुकार करें पूरा, नुकसान नफा दरवाजों से।

निर्मोही एक बार -  पलट कर देख तो ले,
नम आंखों से कोई तुझको है तकता दरवाजों से

कई मर्तबा इस कूंचे से होकर के मायूस 'कमल'
दस्तक देकर खाली लौटा, कई दफा दरवाजों से।
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कवि - मुकेश कमल
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मन की बात कर गया


जुमले नहीं थे, थाली में कुछ दाने भले थे
ना पंद्रह लाख जेब में, चार आने भले थे,
अच्छे दिनों का ख्वाब, जो दिखलाएं वो टूटा
इन अच्छे दिनों से तो, दिन पुराने भले थे।

खाली कटोरा कर गया, सब चाट कर गया
जनता की जेब साहेब, काट कर गया,
सुनी ना बात प्रजा की, ना कोई ख़बर ली
आकर के रेडियो पे, मन की बात कर गया।

सुरमा बता के बेचते रेता ना चलेगा
भाषण सिर्फ स्टेज़ पे देता ना चलेगा,
परिभाषा सियासत की बदल डाली आपने
बिना गारंटी वाला अब नेता ना चलेगा।

नियत में अब ज़रा भी जिसके खोट मिलेगी
लुभावने वादों पे ना सपोर्ट मिलेगी,
जुल्म का जवाब जनता देगी तानाशाह
चोट तुझे आपको सब वोट मिलेगी।
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कवि - मुकेश कमल 
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पल्ला झाड़ डाला है


जो ना हो सका अब तक
अब ना होने वाला है,
इतना कहके उस शख़्स ने
पल्ला झाड़ डाला है।

घुटने टेक देता है
आगे जो हालातों के,
उसके लिए इक टीला
जैसे इक हिमाला है।

मजहबों के झगड़े में
क्या है खोया क्या पाया,
कहीं टूटी मस्ज़िद है
कहीं पे शिवाला है।

खुशियां लानी पड़ती है
खरीद के बाजारों से,
किसी की दीवाली है
किसी का दीवाला है।

रोशनी ना दे शायद
मंजिल बताता है,
वो दीये की लौ का जो
मद्धम उजाला है।

हुकुमरानी तेरी भी
कुछ दिनों की मेहमा है,
वो भरम भी टूटेगा
जिस भरम को पाला है।

कैसे इस हुक़ूमत से
पूछेगा सवाल कोई,
कलम पे शिकंजा है
ओर जुबां पे ताला है।
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कवि - मुकेश कमल
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पहचान कौन है

कहते है बदल देंगे - संविधान कौन है,
नफ़रत की खोले बैठे है - दुकान कौन है।

सच बोलना हाकिम को गंवारा नहीं यहां,
खामोश है आवाम - बेजुबान कौन है।

क्यों मसला जा रहा है - कलियों, फूलों को बेवजह,
तितली तेरे गुलशन का बागबान कौन है।

हरे और भगवे रंग में देश को ये बांटने वाले,
तू इनके खूनी मंसूबे - पहचान कौन है।

किसी भी हाल में तुझको कभी मायूस ना देखा,
तेरे होठों से 'कमल' ले गया मुस्कान कौन है।
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कवि - मुकेश कमल 
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खो चुका हूं मैं

सफ़र के खत्म होने तक-क्या क्या खो चुका हूं मैं, 
मंजिल पा चुका हूं - और रास्ता खो चुका हूं मैं।

इस मकाम की खातिर बहुत कुछ पीछे छूटा है,
ये जिसके वास्ते देखा था सपना खो चुका हूं मैं।

मेरे मां बाप थे जब तक मेरा घर एक मन्दिर था,
वो मंदिर है मगर सुनसान - देवता खो चुका हूं मैं।

इलाका पॉश पर अफ़सोस कि खामोश है गलियां,
यहां विरान बस्ती में सब अपना खो चुका हूं मैं।

पिंजरे में परिंदा - अब ये पश्चाताप करता है,
कुछ दानों के लालच में - घोंसला खो चुका हूं मैं।

'कमल' थक तो गया हूं - पर अभी हारा नहीं हूं,
ये वहम है तुम्हारा कि - हौसला खो चुका हूं मैं। 

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कवि - मुकेश कमल 
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फैसला

चांद तारों जुगनू की झिल मिल ना पायेंगे 
हमारे बाद कोई रौनक-ए-महफ़िल ना पायेंगे।

गम-ए-जुदाई से शायद वाकिफ नहीं हो तुम
हम बिछड़ेंगे ऐसे-ऐसे की फिर मिल ना पायेंगे।

फ़ैसला जो भी करना है करना सोच समझकर 
ये रास्ता गर बदलते हैं कभी मंजिल ना पायेंगे।

कुछ इस तरह से उजड़ा है मेरा गुलशन कि मैं 
लहूं से सींचू तो भी गुल यहां अब खिल ना पायेंगे।

महफ़िल में मुझको रूसवां करके जा रहे है जो
कुछ भी करले मुझको कर हासिल ना पायेंगे।

'कमल' मैं कब्र में भी एक सुकूं के साथ सोया हूं 
जब तक जिंदा है पर चैन वो कातिल ना पायेंगे।
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कवि - मुकेश कमल 
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