शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

अच्छे दिन के सपने


वो अच्छे दिन के दिखा के सपने
दस साल उल्लू बना गया है।
दिन बद से बद्तर हमारे करके
एक मौका मांगने फिर आ गया है।

ना पंद्रह आए किसी के खाते
बस खाली जेबें फिरो हिलाते
वो बैंको का भी सारा पैसा
यारों पे अपने लूटा रहा है।
वो अच्छे दिन के............

कुछ नोटबंदी ने कमर तोड़ी
खर्च ना पाए जो रकम जोड़ी
ना धेला पल्ले ना पल्ले कोड़ी
जनता का जनधन कहां गया है।
वो अच्छे दिन के.................

है जनता पूछे बताओ साहेब
पीएम केयर फंड दिखाओ साहेब
साहेब दिखाकर हमें बत्तीसी
हर बात जुमला बता गया है।
वो अच्छे दिन के...............

करे कहां है वो जन की बातें
सुनाये अपने ही मन की बातें
है खत्म सारी वतन की बातें
धर्म में ऐसे उलझा गया है।
वो अच्छे दिन के............

कैमरा फ्रेम में फिट है साहेब
ड्रामे बाजी में हिट है साहेब
बदले रंग गिरगिट है साहेब
चल नया पैंतरा गया गया है
वो अच्छे दिन के..............

चुनावी बॉन्ड का खेल देखो
इन्ही के खाते मनी ट्रेल देखो
विपक्ष को डाला है जेल देखो
हथकंडे सारे आजमा गया है।
वो अच्छे दिन के................
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कवि - मुकेश कमल 
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अकेला मैं


बियाबान जंगल घनेरे में अकेला मैं
दूर तक फैले - अंधेरे में अकेला मैं 

गमों, रुसवाइयों, दुश्वारियों, का जमघट
घेरे खड़ा हुआ है, घेरे में अकेला मैं

सात वचनों में तुम्हारी, भी तो हामी थी
साथ थी तुम या, सात फेरे में अकेला मैं

अपनों में अपनेपन की, तलाश ख़त्म कर
ख़ुद को तलाशता हूं, मेरे में अकेला मैं

कोई सूफ़ी किसी मुर्शद का दीवाना रहा होगा
अब हूं 'कमल' उसके डेरे में अकेला मैं 
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कवि - मुकेश कमल 
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दरवाज़ा


पीठ घुमाए खड़ी है खिड़की बेवफ़ा, दरवाजों से,
छत से रूठी दीवारें है, फर्श खफ़ा दरवाजों से। 

दीवारों पर तस्वीरें है, तस्वीरों पर हार चढ़े,
एक एक करके कई पीढ़ियां हुई दफा दरवाजों से।

कर्ज़ चुका ना पाया, वो खा सल्फास मरा,
साहुकार करें पूरा, नुकसान नफा दरवाजों से।

निर्मोही एक बार -  पलट कर देख तो ले,
नम आंखों से कोई तुझको है तकता दरवाजों से

कई मर्तबा इस कूंचे से होकर के मायूस 'कमल'
दस्तक देकर खाली लौटा, कई दफा दरवाजों से।
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कवि - मुकेश कमल
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मन की बात कर गया


जुमले नहीं थे, थाली में कुछ दाने भले थे
ना पंद्रह लाख जेब में, चार आने भले थे,
अच्छे दिनों का ख्वाब, जो दिखलाएं वो टूटा
इन अच्छे दिनों से तो, दिन पुराने भले थे।

खाली कटोरा कर गया, सब चाट कर गया
जनता की जेब साहेब, काट कर गया,
सुनी ना बात प्रजा की, ना कोई ख़बर ली
आकर के रेडियो पे, मन की बात कर गया।

सुरमा बता के बेचते रेता ना चलेगा
भाषण सिर्फ स्टेज़ पे देता ना चलेगा,
परिभाषा सियासत की बदल डाली आपने
बिना गारंटी वाला अब नेता ना चलेगा।

नियत में अब ज़रा भी जिसके खोट मिलेगी
लुभावने वादों पे ना सपोर्ट मिलेगी,
जुल्म का जवाब जनता देगी तानाशाह
चोट तुझे आपको सब वोट मिलेगी।
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कवि - मुकेश कमल 
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पल्ला झाड़ डाला है


जो ना हो सका अब तक
अब ना होने वाला है,
इतना कहके उस शख़्स ने
पल्ला झाड़ डाला है।

घुटने टेक देता है
आगे जो हालातों के,
उसके लिए इक टीला
जैसे इक हिमाला है।

मजहबों के झगड़े में
क्या है खोया क्या पाया,
कहीं टूटी मस्ज़िद है
कहीं पे शिवाला है।

खुशियां लानी पड़ती है
खरीद के बाजारों से,
किसी की दीवाली है
किसी का दीवाला है।

रोशनी ना दे शायद
मंजिल बताता है,
वो दीये की लौ का जो
मद्धम उजाला है।

हुकुमरानी तेरी भी
कुछ दिनों की मेहमा है,
वो भरम भी टूटेगा
जिस भरम को पाला है।

कैसे इस हुक़ूमत से
पूछेगा सवाल कोई,
कलम पे शिकंजा है
ओर जुबां पे ताला है।
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कवि - मुकेश कमल
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पहचान कौन है

कहते है बदल देंगे - संविधान कौन है,
नफ़रत की खोले बैठे है - दुकान कौन है।

सच बोलना हाकिम को गंवारा नहीं यहां,
खामोश है आवाम - बेजुबान कौन है।

क्यों मसला जा रहा है - कलियों, फूलों को बेवजह,
तितली तेरे गुलशन का बागबान कौन है।

हरे और भगवे रंग में देश को ये बांटने वाले,
तू इनके खूनी मंसूबे - पहचान कौन है।

किसी भी हाल में तुझको कभी मायूस ना देखा,
तेरे होठों से 'कमल' ले गया मुस्कान कौन है।
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कवि - मुकेश कमल 
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खो चुका हूं मैं

सफ़र के खत्म होने तक-क्या क्या खो चुका हूं मैं, 
मंजिल पा चुका हूं - और रास्ता खो चुका हूं मैं।

इस मकाम की खातिर बहुत कुछ पीछे छूटा है,
ये जिसके वास्ते देखा था सपना खो चुका हूं मैं।

मेरे मां बाप थे जब तक मेरा घर एक मन्दिर था,
वो मंदिर है मगर सुनसान - देवता खो चुका हूं मैं।

इलाका पॉश पर अफ़सोस कि खामोश है गलियां,
यहां विरान बस्ती में सब अपना खो चुका हूं मैं।

पिंजरे में परिंदा - अब ये पश्चाताप करता है,
कुछ दानों के लालच में - घोंसला खो चुका हूं मैं।

'कमल' थक तो गया हूं - पर अभी हारा नहीं हूं,
ये वहम है तुम्हारा कि - हौसला खो चुका हूं मैं। 

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कवि - मुकेश कमल 
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फैसला

चांद तारों जुगनू की झिल मिल ना पायेंगे 
हमारे बाद कोई रौनक-ए-महफ़िल ना पायेंगे।

गम-ए-जुदाई से शायद वाकिफ नहीं हो तुम
हम बिछड़ेंगे ऐसे-ऐसे की फिर मिल ना पायेंगे।

फ़ैसला जो भी करना है करना सोच समझकर 
ये रास्ता गर बदलते हैं कभी मंजिल ना पायेंगे।

कुछ इस तरह से उजड़ा है मेरा गुलशन कि मैं 
लहूं से सींचू तो भी गुल यहां अब खिल ना पायेंगे।

महफ़िल में मुझको रूसवां करके जा रहे है जो
कुछ भी करले मुझको कर हासिल ना पायेंगे।

'कमल' मैं कब्र में भी एक सुकूं के साथ सोया हूं 
जब तक जिंदा है पर चैन वो कातिल ना पायेंगे।
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कवि - मुकेश कमल 
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मेरा वजूद



ये आंसू बनके मेरा इश्क़ जो आंखों से निकला है
सज़ा याफ़्ता कैदी - ज्यों सलाखों से निकला है।

तुम्हारे फूल से पावों को - मुबारक हो सेज ये
नंगे पांव वो पगला अभी - कांटों से निकला है।

उन्हीं के दम से थी रंगत ये खुशबू और ये शोखी
कली से फूल बनके तू जिन शाखों से निकला है।

बहाकर ले गया है जो - गरीबों के ठिकानों को
वो पानी आसमां के महीन, सुराखों से निकला है।

'कमल' है शुक्रिया उनका कि तनके चल रहा हूं मैं 
मेरा वजूद जिन लोगों के - तानों से निकला है।

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कवि - मुकेश कमल 
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गठबंधन ही हैं व्यर्थ


औचित्य क्या विवाह का फेरो का नहीं अर्थ
दो दिल ना मिले तो ये गठबंधन ही है व्यर्थ

पंडित का मंत्रोचारणदेवो का आह्वान
शुभ मुहूरत , टीपना, पंडित, ज्योतिषी हैं व्यर्थ

सात वचन भरना अग्नि के बैठ सम्मुख
फूँक देना आग में सामग्री घी हैं व्यर्थ

खुद की पैदा, पाली पोसी, खुद विदा करी
पराया धन अब कह रहें हैं धी हैं व्यर्थ

पैर छूना पति के कारवाँ चौथ वाले दिन
एक बार साल में ये नौटंकी हैं व्यर्थ

पैसे से ही पति की औकात आँकना
पैसा ना रहें पास में तो पति हैं व्यर्थ

बीवी के चक्कर में सब को भुला देना
प्यार मुहब्बत की इतनी अति हैं व्यर्थ

अकल पे जिनकी 'कमल' पर्दा पड़ा हुआ हो
बात अकल की हर एक उनसे करी हैं व्यर्थ

लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423

लक़ीरें नहीं, कोरी हथेली है

ज़िन्दगी एक पहेली है 
हर दिन नई नवेली है 
बे-बसी खड़ी है हर मोड़ पर 
मज़बूरी वक़्त की सहेली है 

दरवेश है मज़ार की ,
सीढ़ी पे पड़ा है  वो 
आसमाँ ही छत है 
उसकी कहाँ हवेली है 

उड़ जाए धूल बनकर ,
काया मिट्टी की ढेली है 
करोड़ों जाने लेने वाली 
मौत, ये मौत अकेली है 

बाबा है ब्रह्मचारी
शायद इसीलिए ,
चेला नहीं है कोई, 
पर सैंकड़ों चेली है।

कुर्सी कलाकंद
है नेता गुलकंद,
चमचें  है चाशनी, 
जनता गुड़ की भेली है 

क्या होती है मुसीबत, 
बस जानेगा वो ही 
भुक्तभोगी जो , 
मुसीबत जिसने झेली है 

ये क्या मज़ाक 'कमल', 
तेरे साथ हुआ है ,
किस्मत की लक़ीरें नहीं, 
तेरी कोरी हथेली है।

लेख़क
कवि मुकेश 'कमल'
09781099423 

गुड़ यारो, गोबर बन जाएगा

आशिक जब माशूका का, शौहर बन जाएगा
इश्क का मीठा गुड़ यारो, गोबर बन जाएगा

कहलाएगा बॉस शहर में, पर अपने घर में
बेगम का ताबेदार वो, नौकर बन जायेगा

रोयेगा दिल में हँसके दिखलाए महफ़िल में
अपने घर में सर्कस का, जोकर बन जायेगा

आया तो बन चुका वो, बच्चों को खिलाता हैं
धोबी बीवी के कपड़े, धोकर बन जायेगा

जिसकी चाबी हरदम, बीवी के हाथों में हो
कभी कभी खुलने वाला लॉकर बन जायेगा

माँ बाप दोस्तों से वो 'कमल', बेगाना कर देगी
अपनों से पराया उसके संग, सोकर बन जायेगा

आशिक जब माशूका का शोहर बन जाएगा
इश्क का मीठा गुड़ यारो गोबर बन जाएगा

लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'
09781099423 

द्रोह कर विद्रोह कर

आ गया समय अब द्रोह कर               
तू अन्याय से विद्रोह कर
संघर्ष तुझको करना हैं
जीवन से ना तू मोह  कर,
लालच के बंधन तोड़ दे,
अहंकार को तू छोड़ दे,
इतनी शक्ति तुझ में हैं,
तू रुख़ हवा का मोड़ दे,
सत्य का दामन थामकर,
कुछ ऐसा तू भी काम कर,
पथ की तू मुश्किले ना देख,
जग में तू रोशन नाम कर,
संघर्ष के पथ पर आज,
निकला हैं तू अकेला,
चिंतित तनिक ना होना,
कल संग होगा मेला,
युग को हैं जो बदलना,
खुद को बदल के देख,
पीछे चलेगी दुनिया,
तू आगे चल के देख,
मार्ग हैं कितना कठोर,
विघ्न भी तो हैं हज़ार,
उनसे गर हैं जूझना ,
तो तन को अपने लो‍ह कर,
आ गया समय अब द्रोह कर,
तू अन्याय से विद्रोह कर,
संघर्ष तुझको करना हैं ,
जीवन से ना तू मोह  कर.
लेखक (कवि),
मुकेश 'कमल'