एहसास है दम तोड़ते नफरत के शहर में
सांप के मूहं में जैसे तड़पे छछूंदर है
हाथों में जिसके लाठी है भैंस उसी की
मज़बूर से तो रोटी यहाँ छींनते बंदर है
भगवान है बदनाम इंसान का है काम
पापों के बने अड्डे भगवान के मंदिर है
जूतें भी गालियां भी खाता रहे हंसता रहे
राजनीति के खेल में नेता वो धुरंधर है
प्यार के फरमान की फतवों ने जगह लेली
आतंक की इस आग से बच पाना मुक़द्दर है
दर्द तो अपना कोई चाहता नही बताना
चेहरा ये बयां करता है दिल के जो अंदर है
डूब जाता हूँ ‘कमल’ पर सांसे टूटती नहीं
ऐसा महासागर मेरे अश्क़ों का समंदर है
लेखक (कवि),
मुकेश ‘कमल’
09781099423
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें